अगर मंज़िल को पाने की चाह सच्ची है, तब उस लगन को बरक़रार रख कर ही,
इंसान कामयाब हो सकता है. मंज़िल को पा सकता है. अपनी राह में आने वाली हर मुश्किल
,हर परेशानी को उसे इत्मिनान से सोच-समझ
कर आसान करना होगा. किसी और के भरोसे बैठने से उसे कुछ हासिल नहीं होने वाला. ख़ुद के रास्ते के कांटे उसे ही चुन कर हटाने
होते हैं. या उनसे बच कर निकलना होता है. ख़ुद जब तक मेहनत नहीं करता, तब तक क़ामयाबी
नहीं मिलती. मंज़िल ख़ुद चल कर नहीं आती. इन्सान को चल कर उस तक जाना होता है. एक
बार अपनी मंज़िल तय कर उस की तरफ़ आगे बढ़ता है तो उसे रास्ते खुद-ब-ख़ुद नजर आने लगते
है.किसी के कमियाँ निकालने को नज़रंदाज़ करना चाहिए,क्योंकि दूसरों को अच्छा ,या क़ामयाब हर कोई नहीं देख पाता.कभी यूँ भी होता है कि वो कोई काम ख़ुद नही कर पता तो किसी और को भी नहीं उस पर क़ामयाब होते हुए देख पाता. इसलिए किसी और की बात को नज़रअंदाज़ कर ख़ुद अपना तजुर्बा हासिल करना ज़्यादा बेहतर है. उसे छोटी-मोटी ठोकर से घबराना नहीं चाहिए. ख़ुद पर ऐतबार हो तो इंसान से कोई भी
क़ामयाबी, कोई भी मंज़िल दूर नहीं रह सकती.
दर्द की नुमाइश नहीं होती
अपनों की आज़माइश नहीं होती
कांटे कर लेते हैं हिफ़ाज़त अपनी
फूलों सी इनकी रुसवाई नहीं होती
सिला मिलता है मेहनत करे जो कोई
हर तलबगार से यहाँ मेहनत नहीं होती
बयाँ हो जाएँ गर, आसां हो जाएँ मुश्किलें
सारे शिकवों, शिक़ायतों की ज़ुबां नहीं होती
बुत तो क्या ख़ुदा भी मिल जाए ढूंढे अगर
दिलों में पाने की सच्ची ख़्वाईश् नहीं होती
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