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Sunday 10 May 2015

बड़ी बे-तरतीब है बिखरी है ज़िन्दगी




इन्सान को इस जहाँ में ख़ुदा ने पूरी तरह मुक़म्मल बना कर नहीं भेजा है. उसे सब यहीं इस जहाँ में ही सीखना है. इसलिए ग़लतियां होती हैं तो, घबराना नहीं चाहिए. अपनी ग़लतियों से सीख कर सबक़ ले कर आगे बढ़ते रहना चाहिए. उसे ख़ुद को पहचानना ज़रूरी है. अपनी क़ाबलियत को परखते रहना चाहिए. ज़िन्दगी में कुछ पल अपने आप के लिए भी निकलना चाहिए. ऐसे पल जब वह ख़ुद की पहचान अपने आप से कराए. सिर्फ़ अपने दिल की बात जाने. अपने लिए और अपनी ख़ुशी के लिए कुछ करे. ऐसा ना हो कि दूसरों की ख़ुशी की ख़ातिर अपने आपको बदलते-बदलते वह ख़ुद अपने आप के लिए अजनबी बन कर रह जाए. सबकी ख़ुशी का ख़याल रखे ठीक और सही बात है, पर अपनी ख़ुशी के लिए भी तो उसका कोई फ़र्ज़ बनता है ना! चाहे थोड़ी मुश्किल आए ,पर कौशिश करने वालों की हार नहीं होती. 


ख़यालों को सजाना नहीं आया
लफ़्ज़ों को तरतीब से जमाना नहीं आया
बड़ी बेतरतीब है बिखरी है ज़िन्दगी
छाँव ही नहीं घनी सी ये ज़िन्दगी
धूप की तपन भी है ये ज़िन्दगी
रहती एक छाँव की धूप में सदा तलाश
बहकने लगते हैं यूँ ही कभी अल्फ़ाज़
अरमानों की बेतरतीब चाल के साथ
इस रौशनी का कर लें क़ुबूल साथ
या चलें कुछ क़दम अँधेरे के  साथ
यूँ तो रंग बिखेर देगी रौशनी आज
अँधेरा लेकिन मुश्किलों में भी देगा साथ
रौशनी में जो बहाए अश्क़
ज़माने भर को देगी ये बता
अँधेरा लेकिन अश्क़ सारे,
दामन में अपने लेगा छुपा
जो है अपना वो सच में अपना नहीं
दुश्मन हो कर भी दुश्मन ग़ैर नहीं
शाम की धुन्द्लाहट हो
या हो रात का अँधेरा
जो है पास उसे थाम लो
रफ़्तार से चलते जाना है ज़िन्दगी
दुनिया-ऐ महफ़िल में बेचैनियाँ, बेताबियाँ
मिल ही जाती हैं अक्सर यहाँ ये ख़ामियाँ
रहती हैं ख़ामोशियाँ भी तनहाइयाँ भी
ख़ामोशी के शोर को सुन ना सका कोई
भीगे लफ़्जों में भीगा ना कोई
आहट सुन दर्द की जाते बारी-बारी दूर सभी
सच हैं खुशियों में मेलें होते हैं
ग़म में सब अकेले होते हैं
पहचान होती अपनों-ग़ैरों की मुश्किल में
सबक़ पा कर अब क्या हासिल
सागर में तलाशो ना मीठा पानी
अपना सा उसे बनाने में
नदियों ने खो दी सारी ज़िन्दगानी