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Thursday 26 May 2016

fitrat meri फ़ितरत मेरी



बोहोत से लोगों की ये आदत सी बन जाती है कि वो अपने ख़याल ज़ाहिर नहीं कर पाते. चाहे वो किसी की किसी बात से ख़ुश हों या नाख़ुश. ये दबे हुए ख़यालात धीरे-धीरे नाक़ाबिले बर्दाश्त हो जाते हैं,मुख़ालफ़त धीरे से अपनी जगह बनाने लगती है. कई बार लोग अपनी मुख़्तलिफ राय दबा कर रख तो लेते हैं,पर ये दबी  हुई बातें,एक हमलावर की तरह का, अदावत का जज़्बा बन कर रहने लगती हैं इन्सान के साथ. इससे बेचैनी बढ़ती है,और ये बेचैनी नाराज़गी और नाउम्मीदी को पैदा करती है. नतीजा ये होता है कि इन्सान की ताक़त कम होती जाती है,जिस्मानी भी और दिमाग़ी भी. इसका असर क़ाबलियत पर भी पड़ता है और क़ामयाबी पर भी. इसलिए अपने ख़यालात,अपनी राय, कुछ भी दबा कर ना तो ख़ुद ने रखना चाहिए और अपने दोस्तों को,अपने रिश्तेदारों को भी इस बात को बताना और सिखाना चाहिए कि वो अपने ख़यालात खुलकर सामने लायें. अक्सर दूरियाँ भी इसकी वजह बन जाती हैं. कभी दूरियों की वजह से ग़लतफ़हमियाँ भी पैदा हो जाती हैं. इसलिए सबसे मिलते मिलाते रहना चाहिए. मुलाक़ात के मौक़े बढेंगे तो बातें भी होंगीं और ग़लतफ़हमियाँ भी दूर होंगी. शिक़ायतें भी दूर हो जाएँगी.

ग़म हो कोई या मुश्किल आए
ख्वाइश कभी लब तक ना आए

ख़्वाब कोई या अरमान  जागे
दिल ही दिल  बुनते रहे धागे

लिख देना सब आदत है मेरी
कहना क्यों नहीं फ़ितरत मेरी

ख़ामोश ज़ुबां होती नागवार
रोते हैं अरमा जब ज़ार-ज़ार

कोई करता जब वार पर वार
कहाँ चली जाती  ये तलवार

होती तवक्को जो इनकी ख़ास
तब मिलते नहीं क्यों अल्फ़ाज़


Wednesday 11 May 2016

khamoshiख़ामोशी



इंसान जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है,कुछ-ना कुछ नया सीखता जाता है. उसके कई ख़यालात भी बदलते जाते हैं. पहले वो ज़माने को अपने जैसा बनाना चाहता था,थोड़े वक़्त के बाद ज़माने जैसा बनने की कौशिश करने लगता है. कोई साथी हो तो उसके जैसा बन कर उसके साथ रहना चाहता है. लेकिन ये भी कोई सही फ़ैसला नहीं होता. उसे धीरे-धीरे ये समझ में आ जाता है कि किसी की नक़ल करने से बड़ी बेवकूफ़ी कोई और नहीं होती. हु-ब-हु किसी जैसा बन कर नहीं जिया जा सकता सुकून के साथ.जब उसकी ज़िन्दगी में हमसफ़र की आमद होती है तब,चाहता है कि जो उसे पसंद है साथी की भी वही पसंद हो और उसकी ख़ातिर उसका साथी अपनी आदते भी बदल डाले. और ये बिलकुल भी  सही बात नहीं होती है,कि अपने साथी की आदतें, उसकी पसंद-नापसंद को बदला जाये. ऐसा हरगिज़ भी सही नहीं है कि बदल कर ही वो आपका सच्चा साथी बन सकता है. वो जैसा भी है अपनी एक अलग शख़सियत रखता है. उसे आप दिल से अपनाएंगे तभी सही मायने में आप एक अच्छे और सच्चे हमसफ़र साबित होंगे.

सुनता रहता है दिल ख़ामोशी से
बातें जो तुमने कही सरगोशी से
चुप रहना फ़ितरत इसकी  सही
कहते रहना आदत तुम्हारी रही

सौ-सौ शिक़ायतें सारी  सुनी मैंने
नही की कभी बातें अनसुनी मैंने
ख़ामोशी याने के ना सुनना नहीं  

ख़ामोशियाँ मेरी भी कहती  रहीं
आवाज़ दी नहीं,बुलाया ना कभी

चाहा यही लेकिन हरदम मैंने भी
सुनलो सदाएँ मेरी  हमदम कभी
इल्तजा ख़ामोशी मेरी करती रही