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Friday 31 July 2015

क़ामयाबी से मेरी ख़तरा है



ज़िन्दगी की जद्दोजहद में इन्सान जब अपनी क़ामयाबी की तरफ़ बढने लगता है ,तब उसके अपने ही कई बार उसे मायूस करने की कौशिश करते हैं. उसे रोकते हैं,मना करते हैं. अक्सर ऐसा घर की बेटियों के साथ हमेशा ही होता है. हर मर्तबा वो गलत नहीं होते . सही रास्ता दिखाने की कौशिश भी होती है उनकी कभी-कभी. पर कुछ वो अपने जिन पर पूरा एतमाद होता है इन्सान को, वही मुश्किलें पैदा करने  लगें तो, हर कोई अपने आप को हारा हुआ सा महसूस करने लगता है. उसे तब सबसे शिक़ायत हो जाती है. उसे लगने लगता है, हर कोई उसे नक़ामयाब ही देखना चाहता है. हर किसी को तब वह शक़ की निगाह से ही देखने लगता है. ये सच है कि हर कोई आपका दोस्त नहीं होता पर हर कोई दुश्मन भी तो नहीं होता. पर ये दिल क्या करे अब तो इसे किसी का भी भरोसा नहीं रहा. पर ज़माने से शिक़ायतें लाख सही अपने रास्ते पर चल कर मंज़िल को पाना ही दुनिया को अपना जवाब देने का सबसे अच्छा और सही तरीक़ा होता है

नाक़ामी मेरी मसला नहीं
क़ामयाबी से मेरी ख़तरा है
दुश्मनों को नहीं
दोस्तों को रास्ता मेरा अखरा है
दर्द की मेरे परवाह नहीं
मुस्कुराहट से मेरी शिकवा है
ख़ुशियों से नहीं
ग़मों से मेरे, दिल सबका बहला है
दोराहों पर शक़ नहीं
ग़लत मोड़ से डरना है
मंज़िल पर बसेरा नहीं
सफर के बाद नए सफ़र पर चलना है
दीवारों का क़सूर नहीं
बंद दरवाजों ने जज़्बा मेरा बदला है
बेबसी से मेरी मतलब नहीं
ख़ुशहाली से मेरी सदमा है
हैवान बनती इस दुनिया में
इन्सान हर दम दहला है
मेरे क़दमो की ज़मीन छीनने में
मेरा अपना ही कोई पहला है
उलझनों से मेरी क्या है वास्ता
इत्मिनान से मेरे आज
दिल अपनों के क़तरा-क़तरा हैं
पल-पल कटती लाशें मसला नहीं
मज़हब के नाम पर बेमज़ह्बों का पहरा है

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