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Thursday 19 March 2015

ज़िन्दगी जीने के सबके बहाने अलग अलग होते हैं

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इस दुनिया में इन्सान रहते तो साथ-साथ हैं. एक ही घर में भी रहते हैं. साथ-साथ रहते हुए भी उनके ख़यालात मुख़तलिफ़ होते हैं. जहाँ में सबके जीने के तरीक़े अलग-अलग होते हैं. कई मर्तबा तो एक कही गई बात के मायने अलग-अलग समझे जाते हैं. कोई पानी के ग्लास को आधा भरा हुआ देखता है , कोई आधा ख़ाली गिलास मानता है. फिर भी बाज़ दफ़ा इन्सान चाहता है, कि सब उसकी तरह सोचें. उसके नज़रिये को अपनाएँ जो कि एक नामुमकिन सी बात है. कभी कुछ बातों में तो ऐसा हो सकता है, पर हमेशा तो मुमकिन नहीं. अक्सर ये उम्मीद पाल बैठते हैं जो एक ग़लत उम्मीद होती है. ख़ुदा ने सबको अलग-अलग जीने के साथ-साथ अलग-अलग सोचने समझने की ताक़त भी दी है और आज़ादी भी दी है. इसलिए एसी उम्मीद ही मत पालो कि नाउम्मीद होना पड़े. एक ही ज़िदगी मिली है उसे किसी दूसरे के नहीं अपने नज़रिए से देख-समझ कर जीना चाहिए. किसी के ख़यालों को बेसबब अपने मान कर जीना एक बेवक़ूफ़ी है. याने दोनों ही बातें ग़लत हैं, किसी पर अपने ख़याल थोपना, और किसी के नज़रिए को अपना नज़रिया बग़ैर सोचे-समझे बना लेना.

सबके कहने के अंदाज़ अलग-अलग होते हैं
सबके सुनने के अंदाज़ अलग-अलग होते हैं
बात एक होती है, हालात अलग-अलग होते हैं
फूल तो मिलेंगे कई एक साथ गुलशन में
हर फूल के लेकिन बू-ओ-रंग अलग-अलग होते हैं
दोस्त तो कई बनते हैं इस सफ़र में सबके
दोस्तों के लेकिन ख़याल अलग-अलग होते हैं
कुछ क़दम चल कर साथ, छोड़ देते हैं तन्हा  
ऐसे बेईमानों के भी ईमान अलग-अलग होते हैं
आती रहती हैं नस्ल नई- दर- नई
हर नसल के पर ज़माने अलग-अलग होते हैं
साथ नहीं मिलती है कभी दोनों हमें
ख़ुशी और ग़म दोनों के ठिकाने अलग-अलग होते हैं
चाहे ग़म हो चाहे ख़ुशी हो आपकी
दोनों को पीने के पैमाने अलग-अलग होते हैं
कर लो कौशिश चाहे जितनी रहने की तन्हा
तलाश आपको करने के लिए
भीड़ के निशाने अलग-अलग होते हैं
साथ सभी का पा कर चलता तो है कारवाँ जहाँ का
पर जीने के सबके बहाने अलग-अलग होते हैं
चाहे समंदर में मिल जाते हैं दरिया सारे आ-कर
हर दरिया के लेकिन किनारे अलग-अलग होते हैं
मुश्क़िलों से गुज़रते तो सभी हैं लेकिन
हालात से रु-ब-रु होने के तरीक़े अलग-अलग होते हैं
वक़्त के इंतेज़ार में रुकना नहीं
किसी खिज़ा को थाम कर रोना नहीं

बहार आने के मौसम अलग-अलग होते हैं

Sunday 15 March 2015

मेरा सरापा पूछता है अक्सर तन्हाई में


कई मर्तबा हालात ऐसे हो जाते हैं, जब इन्सान हैरान-परेशान हो जाता है. ज़माने से तो उसे बेशुमार शिक़ायतें होती ही हैं. अपने आपसे भी ख़फ़ा हो कर जीता है.ऐसे हालात में ख़ुद अपना अक्स भी उसे पराया नज़र आता है.यहाँ तक कि उसे आईने से भी शिक़ायत होती है कि उसका अक्स उसे अधूरा क्यों दिखाई देता है. ज़िन्दगी में हालात चाहे जैसे हों, हमें डट कर उसका मुक़ाबला करना चाहिए. शिक़ायतें करने से, ग़मज़दा रहने से, मुश्किलों से दूर भागने से कुछ हासिल नहीं होता है. जब तक हम हालात को बदलने की कौशिश नहीं करेंगे तब तक हालात बदलेंगे कैसे? जैसे हालात हैं उससे समझौता कर लेना समझदारी नहीं होती है. हालात में ढल जाना नहीं हालात को अपने जैसा बनाना समझदारी की बात होती है. अपने आप में कमियाँ नहीं निकलना चाहिए . अपनी क़ाबलियत को अपने आप से ढूंड निकलना चाहिए और उसे अपनी ताक़त बना कर मुश्किल से मुश्किल दौर को हरा कर ज़िन्दगी को ख़ुशहालबना कर ज़िन्दादिली के साथ ख़ुशी-ख़ुशी जीना चाहिये.

मेरा सरापा पूछता है अक्सर तन्हाई में
आईने में नज़र आता तो हूँ मै
क्यों लगता नहीं पर ये हूँ मै
अक्स है मेरा तो सिर्फ़ ये
दिखता ज़रूर मुझसा है ये
क्यों फिर मेरे मुक़ाबिल है ये
सीधा सा हूँ मै और उलट है ये
मै हो कर भी मै नहीं हूँ ये
मेरा सरापा अक्सर पूछता है तन्हाई में
मुझसे इसमें ख़यालात कहाँ
मेरे जैसे इसमें जज़्बात कहाँ
अक्स है मेरा तो सिर्फ़ ये
सच हूँ मै और झूठ है ये
क्यों इसमें कोई एहसास नहीं
हँसी के पीछे के दर्द क्यों इसके साथ नहीं
मेरा सरापा अक्सर पूछता है तन्हाई में
क्यों मै हो कर भी मै नहीं हूँ ये
बेजान अक्स है ये सच नहीं ये
ना तो दिल है इसमें, और रूह भी नहीं
नज़र आता है मुझसा मगर
मेरी तो इससे जान-पहचान नहीं
मेरा सरापा पूछता है अक्सर तन्हाई में
लबों की मुस्कान आती है नज़र
लहूलुहान दिल मगर आता नहीं नज़र
मुझसी शक़ल है पर नहीं हूँ मै
फिर क्यों आईने में नज़र आता हूँ मै
मेरा सरापा पूछता है अक्सर तन्हाई में
कहाँ खो दिया मुझे गहराई में
ना तो ढूंड पाओगे औरों की परछाई में
ना इस जहाँ की रानाई में
पाओगे ख़ुद को अपनी ही किसी अच्छाई में
अपने दिल की किसी सच्चाई में

सरापा ढूंड ही लेगा ख़ुद को भीड़ और तन्हाई में

Sunday 8 March 2015

इन ताश के पत्तों को हवा के झौंके डराते हैं

how to play card

इस जहाँ में कुछ इन्सान ना जाने बेख़ौफ़ हो कर क्यों नहीं जी पाते हैं. कभी अपने आस-पास मौजूद लोगों से डरते है. कभी ख़ुद अपने-आप से डरते है. कभी बचपन की अच्छी-बुरी यादें उन्हें डराती हैं. कभी वो आने वाले कल से डरते है.कोई उन्हेंबुरा ना कहे इस बात के लिए भी उनके दिल में डर बना रहता है. कोई काम शुरू करने से पहले उसके अंजाम से उन्हें डर लगता रहता है कि कही ग़लत अंजाम ना हो, कहीं उनसे कोई ग़लती ना हो जाए. कोई बात कहते हुए भी कई लोग अक्सर डरते है कि किसी को बुरा ना लग जाए. चाहे उनकी बात सही हो,चुप रहने की वजह चाहे उन्हें नुक़सान उठाना पड़े या कोई और नुक़सान उठाए, ना जाने तब भी क्यों वे कुछ कह नहीं पाते. तब भी चुप रह जाते हैं. इससे उलट भी कई लोग होते हैं जिन्हें इस बात की कभी परवाह ही नहीं होती, कि उनकी बात ग़लत है , उनका कहा किसी को बुरा लग रहा है,उनकी वजह से किसी का छोटा या बड़ा नुक़सान हो रहा है.  जबकि वे जानते है कि वो ग़लत हैं.दोनों ही बातें दुरुस्त नहीं हैं. हमें इतना भी डर कर नहीं जीना चाहिए कि ज़िन्दगी बदहाल हो जाए. ज़िन्दगी से ख़ुशी ही ग़ायब हो जाए. इतना बेख़ौफ़ भी नहीं होना चाहिए कि दुनियादारी के सारे नियम-क़ानून टूट जाएँ और दूसरों का जीना मुहाल हो जाए.
बचपन के कुछ अक्स डराते हैं
जवानी के कुछ नक्श सताते हैं
ज़िन्दगी की उजालों में अँधेरे डराते हैं
खो गए अल्फाज़ गुम हो गई आवाज़
वक़्त-बेवक़्त ख़ामोशियों के आग़ाज़ डराते हैं
धुंधली हो गई खुशियों की सौग़ात
जब सवेरे ने उठाई रात की लाश
चाँद ने बहाए मोती सूरज ने लिए समेट
दर-बदर हुए वक़्त के वो पहरेदार डराते हैं
आईनों से कलाई उतर गई
अक्स हो चले बदरंग सारे
ऐसे आईनों में उभरे अक्स डराते हैं
धुन्दलाई आँखों में परछाइयों के साए हैं
भीगते लफ़्जों में वक़्त के आइने हैं
जलाएँ चाहे दफ़नाएँ ग़ैरों की क्या मजाल
ऐसा जो कर जाएँ अपने ही होते हैं
झुके हुए बूढ़े कंधे डराते हैं
क़दम से क़दम मिला ना पाएं जब
उस वक़्त के अंदेशे डराते हैं
कभी अपने लहू के रवैए सबको सताते हैं
इन ताश के पत्तों को हवा के झौके डराते हैं

                       

Thursday 5 March 2015

जलते हुए ख़्वाबों को नींद कैसे सुलाए


जब इन्सान किसी मुश्किल में मुब्तला होता है , तब उसे सारे जहाँ में हर तरफ़ मुश्किलें ही नज़र आती हैं.सब कुछ ग़लत ही लगता है. वाक़ई में ऐसा होता नहीं है. दर-असल मुश्किल दौर में उसका हर चीज़ को देखने का नज़रिया बदल जाता है. सच है सारा खेल नज़रिए का ही होता है. आप और हम हालात के शिकार तभी महसूस करेंगे अपने-आप को जब नज़रिया ऐसा होगा हमारा, कि सारी मुश्किलात, सारी परेशानी, सब ग़लती और सब ज़्यादती हमारे ही साथ हो रही है. सारी दुनिया ख़ुशहाल है, ख़ुश-क़िस्मत है, सिर्फ़ हम ही बदक़िस्मत हैं.जब अंदेशे और ग़लतफ़हमी पाल कर बैठा रहेगा इंसान तो हासिल कुछ भी नहीं होगा. मुश्किलात के हल ढूंढे , लहरों के ख़िलाफ़ चलने की कौशिश करे सही को सही और ग़लत को ग़लत कहने की हिम्मत रखे. अपनी कमी और ग़लती ढूंढे, उन्हें पहचाने, उन्हें माने और फिर उन्हें दूर करने की कौशिश करे. सबसे ज़्यादा ज़रूरी है ख़ुद पर एतमाद रखना. अपने आप को यक़ीन दिलाए कि वह सब-कुछ कर सकता है. तब तो वह हर मन्ज़िल पा सकता है.

सुलगती आँखों से झरते है

ख़्वाबों के सर्द से साए

जलते हुए ख़्वाबों को नींद कैसे सुलाए

पाया था जिसे मुश्किल से या रब

मोड़ ऐसा आने नहीं पाए

ख़ुमारी के आलम को जो मिटा जाए

जिनकी क़िस्मत में जलना है

ऐसे ख़्वाबों को कोई बुझा कैसे जाए

पलकें झपकती सी ये ज़िन्दगी

ख़्वाब की मदहोशी मिटा ना जाए

ढूंड कर लाए हैं बड़ी जद्दोजहद से

अपने आपको ख़ुद से,

फ़िर खोने से हम ख़ुद को कैसे बचाएँ

रूहानी सी किसी ख़ुशबू सा

महकता है जज़्बा दिलों में

ओस की बूंदों सा ये कहीं सूख ना जाए

जो ख़ुद अपनी बर्बादी करने चले

उनको तबाही से ख़ुदा कैसे बचाए

दहकते दिल के प्याले में बसते

मक़सद के टिमटिमाते अक्स हैं

जलते-बुझते मक़सद को दहलीज़ कैसे पlर कराएँ 

Sunday 1 March 2015

शमा ही क्यों जले सहर होने तक


किसी एक इंसान पर सारी ज़िम्मेदारी डालकर दूसरे बेफ़िक्र हो कर जियें. ये हरगिज़ सही नहीं, ग़लत होता है.एक अकेले के लिए वो किसी बोझ से कम नहीं होता. जब ज़िम्मेदारी बाँट ली जाती है तो ज़िन्दगी ज़्यादा सलीक़े से और ज़्यादा तरतीब से गुज़रती है. अकेले-अकेले चलने से ज़िन्दगी की मुश्किलात से गुज़रना दुश्वार हो जाता है. जिस एक पर सारी ज़िम्मेदारी डाल दी जाती है, वह भी उसे निभाने में अक्सर या तो पिछड़ जाता है या नाकाम हो जाता है. मिल-जुल कर हर इम्तेहान आसानी से पार किया जा सकता है. सारा इंतेज़ाम सारा निज़ाम मिल बाँट कर ही आसानी से किया जा सकता है. इसलिए कहते हैं कि एक और एक ग्यारह होते हैं. मिल-जुल कर ताक़त दोहरी हो जाती है. घर में ,ऑफिस में,दोस्तों में या ज़िन्दगी में, हर जगह मिलजुल कर सारी ज़िम्मेदारी आपस में बाँट लेना चाहिए. इस तरह सबकी 
ज़िन्दगी आसान हो जाती है.

शमा तो जलती है फ़ना होने तक

शमा ही क्यों जले सहर होने तक

चलो कभी तो जलती शमा बुझाकर

अब रात से कहें वही जले सहर तक

सरेशाम रौशनी ने साथ छोड़ दिया

अब रात से कहें वही जले सहर तक

ज़िन्दगी को बेवफ़ा तो ना कहो

बावफ़ा ख़ुद  बन देखो एकबार

मौत से कहें वही चले मुक़म्मल सफ़र तक

अब रात से कहें वही जले सहर तक

याद करें ख़ुदा को अब हम

या खो जाएँ ख़ुदा में कहो हम

देखें नज़र भर चाँद को हम

या जाएँ रौशनी तले सूरज तक

अब रात से कहें वही जले सहर होने तक

कभी चाहा वक़्त की शिक़ायत ये

भेज कर ख़ुदा के दरबार तक

वक़्त की रंजिशों को रास्ते से भटका कर

तल्ख़ लम्हात को भेज कर दूर तक

अब रात से कहें वही जले सहर तक

हमें रौशनी में साए नज़र आते हैं

अपने कभी पराए भी नज़र आते हैं

इन्हें भी संग ले चलें, साथ चलें ये जब तक

अब रात से कहें वही जले सहर होने तक

दोस्तों को क्यों कसें हमेशा क़सौटी पर

देखें ख़ुद भी कभी सच्चे दोस्त बन कर

वफ़ा की उम्मीद करें किसी से वफ़ा कर

अब शमा से कहें वही जले सहर तक