Ads

Sunday 8 March 2015

इन ताश के पत्तों को हवा के झौंके डराते हैं

how to play card

इस जहाँ में कुछ इन्सान ना जाने बेख़ौफ़ हो कर क्यों नहीं जी पाते हैं. कभी अपने आस-पास मौजूद लोगों से डरते है. कभी ख़ुद अपने-आप से डरते है. कभी बचपन की अच्छी-बुरी यादें उन्हें डराती हैं. कभी वो आने वाले कल से डरते है.कोई उन्हेंबुरा ना कहे इस बात के लिए भी उनके दिल में डर बना रहता है. कोई काम शुरू करने से पहले उसके अंजाम से उन्हें डर लगता रहता है कि कही ग़लत अंजाम ना हो, कहीं उनसे कोई ग़लती ना हो जाए. कोई बात कहते हुए भी कई लोग अक्सर डरते है कि किसी को बुरा ना लग जाए. चाहे उनकी बात सही हो,चुप रहने की वजह चाहे उन्हें नुक़सान उठाना पड़े या कोई और नुक़सान उठाए, ना जाने तब भी क्यों वे कुछ कह नहीं पाते. तब भी चुप रह जाते हैं. इससे उलट भी कई लोग होते हैं जिन्हें इस बात की कभी परवाह ही नहीं होती, कि उनकी बात ग़लत है , उनका कहा किसी को बुरा लग रहा है,उनकी वजह से किसी का छोटा या बड़ा नुक़सान हो रहा है.  जबकि वे जानते है कि वो ग़लत हैं.दोनों ही बातें दुरुस्त नहीं हैं. हमें इतना भी डर कर नहीं जीना चाहिए कि ज़िन्दगी बदहाल हो जाए. ज़िन्दगी से ख़ुशी ही ग़ायब हो जाए. इतना बेख़ौफ़ भी नहीं होना चाहिए कि दुनियादारी के सारे नियम-क़ानून टूट जाएँ और दूसरों का जीना मुहाल हो जाए.
बचपन के कुछ अक्स डराते हैं
जवानी के कुछ नक्श सताते हैं
ज़िन्दगी की उजालों में अँधेरे डराते हैं
खो गए अल्फाज़ गुम हो गई आवाज़
वक़्त-बेवक़्त ख़ामोशियों के आग़ाज़ डराते हैं
धुंधली हो गई खुशियों की सौग़ात
जब सवेरे ने उठाई रात की लाश
चाँद ने बहाए मोती सूरज ने लिए समेट
दर-बदर हुए वक़्त के वो पहरेदार डराते हैं
आईनों से कलाई उतर गई
अक्स हो चले बदरंग सारे
ऐसे आईनों में उभरे अक्स डराते हैं
धुन्दलाई आँखों में परछाइयों के साए हैं
भीगते लफ़्जों में वक़्त के आइने हैं
जलाएँ चाहे दफ़नाएँ ग़ैरों की क्या मजाल
ऐसा जो कर जाएँ अपने ही होते हैं
झुके हुए बूढ़े कंधे डराते हैं
क़दम से क़दम मिला ना पाएं जब
उस वक़्त के अंदेशे डराते हैं
कभी अपने लहू के रवैए सबको सताते हैं
इन ताश के पत्तों को हवा के झौके डराते हैं

                       

No comments:

Post a Comment