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Sunday 22 February 2015

बूँद की एहमियत भी कम नहीं


ज़माने में ये एक आदत लाजवाब पाई जाती है. किसी भी क़ामयाबी का सेहरा अपने सर बाँधने की. किसी और की मेहनत उसकी कौशिश उसका साथ किसी की भी एहमियत को नज़रंदाज़ कर देना. इस जहाँ का एक पुराना शग़ल है. जबकि इस दुनिया में सबकी अपनी-अपनी एक अलग जगह और अपनी एहमियत होती है. किसी कहानी को या किसी कविता या किताब को तो आप और हम अकेले बैठ कर लिख सकते है, हालाँकि उसके किरदार उसमे भी आपकी ज़िन्दगी के किसी हिस्से से ताल्लुक़ रखते ही होंगे.ज़िन्दगी कीकोई क़ामयाबी अकेले पाना नामुमक़िन है.किसी भी क़ामयाबी में कुछना कुछ हिस्सा तो साथ जीने वालों का होता ही है . चाहे वो शामिल दिखाई ना देते हों तब भी. जैसे आपके गुरु, माँ-बाप, भाई-बहन, दोस्त, मददगार . ये सब आपकी ज़िन्दगी में जो एहेम किरदार अदा करते हैं, वो किसी एक बात पर नहीं बल्कि आपकी पूरी शख़सियत, पर आप माने या ना माने असरदार होता है. एक से दुनिया नहीं बनती . किसी की भी एहमियत किसी से कम नहीं होती . ना तो किसी की एहमियत को कम मानना चाहिये औरअगर कोई हमारी एहमियत को कमतर मानता है तब भी मायूस नहीं होना चाहिये. क्योंकि किसी के आँख बंद कर लेने से उजाला नहीं छुपता.अपना असर वो ख़ुद बयाँ करता है.सबकी अपनी-अपनी अलग एहमियत और एक हिस्सेदारी होती है.

कौन कहता साग़र में

बूँद एक मिलने से होता क्या

बूँद-बूँद के मिलने से ही क्या

ये साग़र,साग़र है होता

साग़र है बड़ा तो क्या

एहमियत बूँद की भी कम नहीं

सूरज में है तपन इतनी तो क्या

किरन में भी रौशनी कम नहीं

है चाँदनी रातों से रौशन जहाँ

तारों की चमक हंसीं कम नहीं

क़ामयाब है मशहूर यहाँ तो क्या

नाक़ामयाब की मेहनत क़ीमती कम नहीं

एक हँसी जीत लेती है दिलों को तो क्या

मुस्कुराहट का मोल भी कम नहीं

रेत रेत होती है पानी नहीं तो क्या

चश्मा पानी का छुपा होता इसमें नहीं क्या 

तूफ़ान में है क़हर पर सभी को है ख़बर

हवाओं से हैं ज़िन्दगानियाँ नहीं क्या

Friday 13 February 2015

अब जो होने लगे इम्तेहान


इन्सान की ज़िन्दगी में ख़ुशी के पल होते हैं ,तभी साथ-साथ ग़म भी चुपके से आ जाते हैं.क़ामयाबी रहती है दामन में तो नाक़ामयाबी भी चली आती है, दबे पाँव. कभी-कभी कई साथी साथ होते हैं तो कई मर्तबा सब साथ छोड़ देते हैं. सारा जहाँ करवट बदल कर दोस्त से दुश्मन बन जाता है. जिस तरह से मौसम बदलते हैं. हालात भी बदलते रहते हैं. कभी खिज़ा होती है, तो कभी मुस्कुराकर बहार आ जाती है. किसी भी हालात का सामना करने से कभी भी घबराना नहीं चाहिए. हालाँकि कहने में आसान लगता है ,कर गुज़रना भी लेकिन ज़्यादा मुश्किल नहीं. अच्छे वक़्त में हम अपने आप को और जहाँ को उतने अच्छे से नहीं जान पाते, जितना वक़्त के बदतर हालात में समझ पाते हैं. हर इम्तेहान सीखने के लिए होता है. कुछ ना कुछ सिखा कर ही जाता है. ख़ुद की क़ाबिलियत का भी इम्तेहान हो जाता है. तभी हमें मालूम होता है. अरे! हम तो ख़ुद को किसी और बात में माहिर समझते थे. हक़ीक़त बिल्कुल उलट भी हो सकती है कभी. इसलिए हर लम्हे का ख़ुशदिली से ख़ुशइख़लाक़ी से इसतेक़बाल करने का एक अलग ही मज़ा होता है.

अब जो होने लगे थोड़े से इम्तेहान
ख़ुद को समझना हो चला आसान.
मंज़र दर मंज़र अपने होने लगे पराए
दश्त बन गए जो शहर थे बसे-बसाए
मसान बन गए जो थे गुलज़ार कभी
दिन की तपन सी हो चली चांदनी
परिंदों का उड़ना हो चला जानलेवा
मंज़र देखते रहे किनारे पर खड़े हम
कभी दम तोड़ते हैं अल्फ़ाज़
कभी वक़्त से लड़ते है ख़यालात
रिश्ता हो ख़ुशी से ग़म का
या हो बेख़ौफ़ से खौफ़ का
जाने कैसे-कैसे हो गए हालात
मुस्कुराती है ख़ामोशी कभी
डराती है ये तन्हाई कभी
दिन के प्याले में रौशनी के शरारे
क़तरा-क़तरा होने लगते हैं अब
यक़ीन के मोती टूटने लगते हैं जब
मौसम किसी वक़्त आया था मुस्कुराकर
सारे जहाँ ने उसे पुकारा था अपनाकर
वक़्त ने किस तरह से ली करवट
मुस्कुराहट में आ बसी छटपटाहट
ये नज़रिया ही है सारी कड़वाहट शायद
किसी को किसी पर नहीं ऐतबार
किसी की ज़रुरत से नहीं कोई दो-चार
ख़ुद से ख़ुद का जाता रहा एतबार भी
आँखों में चराग़ होंगे रौशन तभी

देखेंगे पलकों से अंधेरों को हटा जब

Tuesday 10 February 2015

जिस्म से परे रूहों का एक रूहानी रिश्ता होता है

hindi poem

ज़िन्दगी का कारवाँ रफ़्ता-रफ़्ता आगे बढता रहता है. आप और हम जाने कितने जाने-अंजाने लोगों से मिलते हैं. कुछ को हम भूल जाते हैं. कुछ अच्छी या बुरी याद बन कर हमारे साथ रह जाते हैं. बाज़ दफ़ा कुछ एसी शख्सियतों से वास्ता पड़ता है, जो आपको आपके होने का एहसास दिला देते हैं. आपके क़दमों को सही राह भी दिखाते हैं. आपकी कई उलझनें भी सुलझाते हैं. ये आपको ज़िन्दगी में कभी भी मिल सकते हैं. चाहे बचपन में मिलें, चाहे जवानी में, या फिर बुढ़ापे में. कहने का मतलब है कभी भी मिल सकते हैं . आपकी किस्मत से ही आपको मिलते हैं. आप और हम इनसे  कुछ सीख पाते हों या नहीं , ज़िन्दगी जीने का सही तरीक़ा और सही सलीक़ा ज़रूर सीख लेते हैं. इस मतलब-परस्त दुनिया में हालाँकि कम लोग ही ऐसे होते हैं. वैसे इस क़ायनात में किसी दूसरे के ऐसे होने की उम्मीद सब करते हैं. जबकि ऐसी उम्मीद करने के बजाए हम ख़ुद भी ऐसी मिसाल बन सकते हैं. क्योंकि कोई फ़रिश्ता तो बनना नहीं है . सिर्फ़ इन्सान ही बनना है.और इन्सान बनना कोई इतना मुश्किल काम भी नहीं

जिस्म से परे रूहों का एक रूहानी रिश्ता होता है,
बिन देखे,बिन कहे भी हर अफ़साना बयाँ होता है.
दर्द हो, या हो हँसी,रंज हो के हो ख़ुशी,
हर एहसास लहरों सा रवाँ होता है.
निगांहों की हदों के पार,लफ्ज़ हों जब बेआवाज़,
दिल से दिल तक रूहों की होती तब परवाज़.
बेजिस्म रूह गुज़रती है छूकर हर एहसास,
ख़ामोशियों को दे देती ख़ामोशी से आवाज़.
तन्हाइयों को कर कोने-कोने से तलाश,
हमसफ़र जाती हैं बन हर हालात की.
ख़बर ना होने पाती ख़ुद को भी,
कैसे ये, कब  हुई शुरुआत थी.
रौशनी में नहला कर जिस्मों को,
चाँदनीं बन जाती ये मश्वरात की.
नहीं इन्तेख़ाब इनका हम करते,
चुनती हैं ये हमें अपना जान के.
हमारी उदासी भी इनके सर माथे,
सारी खुशियाँ ये हमको पहना दें.
निगाह इनकी बड़ी शातिर,
ग़मों को ना लाती ये ख़ातिर.
हमारी रूह को जो छूकर जाता है,

रूहों का ऐसा ही रूहानी नाता है.

Friday 6 February 2015

सवेरे की रौशनी रात के दरिया से अलग

hindi poem

ज़माने में हर इन्सान की ख़्वाहिशात अलग अलग होती है. उनकी मंज़िलें भी मुख्तलिफ़होती हैं. उनके उस मंज़िल तक पहुँचने के रास्ते भी जुदा-जुदा ही होते हैं. कोई भी किसी दूसरे के नक्श-ऐ क़दम पर चल कर अपना मुक़ाम नहीं पा सकता.हाँ किसी से कुछ सीख ज़रूर ले सकता है,और अपने हिसाब से रास्ता तय कर सकता है. किसी एक ही चीज़ को देखने और समझने के अंदाज़ सबके अपने-अपने होते हैं.अगर सभी एक रास्ता एक मंज़िल वाला सफ़र अपनाये तो क्या होगा? ना तो दुनिया में कुछ नया होगा, और ना कोई तरक्क़ी होगी जहाँ में.सब, बस एक दूसरे की नक़ल बन कर रह जाएंगे. सबकी कोई अपनी शख्सियत अपनी हस्ती नहीं होगी, तोये प्यारी सी रंग-बिरंगी दुनिया कितनी बेनूर और बेरौनक हो कर रह जाएगी? इसका आप तसव्वुर कर के ही देखेंगे तो इसकी ज़रुरत को ज़रूर सराहेंगे. इसलिए सबको अपनी पहचान बनाने की अपनी-अपनीतरह से कौशिश कर के,ख़ुद की मंज़िल पाना चाहिए.

रात के दरिया से, रौशनी  सवेरे की

अलग हो  कांरवा से, बह चली तन्हा.

सराही जाए कौशिश रात की,

या पाएगा तारीफ़ सुबह का रवैया.

यूँ तो है ज़िन्दगी हसरतों का अँधा कुआँ,

उसमे से लेकिन गुज़री कोई एक किरन,

महका-महका जाती है दिल-ऐ गुलज़ार.

अँधेरे, उजालों में तब्दील हों तो बेहतर,

आप, आप ही रहें तो है बेहतर.

कौशिश-ऐ इंसाँ है ज़िन्दगी की ज़रुरत,

रात, रात ही रहे तो है जहाँ में मुसीबत.

दिन भी ज़रूरी और है रात की भी ज़रुरत,

चांदनी भी हक़ीकत है,रौशनी भी ज़रुरत.

रूह कहीं खो गई जिस्मों की इस जहाँ में,

बेईमानी आ गई बंदगी की दुआ में.

सजदे जबी ने किये दिल तो झुका नहीं,

माना नहीं जाना नहीं, तो ख़ुदा पाया नहीं.

वक़्त के  दरिया का नूर कभी थमा नहीं,

एक दौर कभी था पहले, एक अभी यहीं.

आते-जाते सिखा जाते ये दौर हमें,

सुबहें आएँगी हर अँधेरी रात के बाद.

कर लो कौशिश हर इम्तेहाँ के बाद,


इंसाँ वही ख़ुद संभले औरों को संभाले साथ.

Sunday 1 February 2015

कुछ बिखरे हुए अल्फाज़


आप और हम जब कभी कोई बात कहते हैं और कोई बात सुनते हैं. तब कई दफ़ा ये बातें यादें बन कर हमारी ज़िन्दगी में शामिल हो जाती हैं. ये यादें भी दो तरह की होती हैं. ये कभी भी तन्हाई में या भीड़ में ज़िन्दा हो कर हमारे सामने आ जाती हैं. कभी तो ये एक ख़ुशग़वार झौका बन कर दिल को महका जाती है. कभी एक दहकते हुए अंगारे की तरह सारे वजूद को सुलगा जाती है.कभी दर्द के तीरों से छलनी कर जाती हैं. जब कोई याद इतनी तक़लीफ़देह होती है तो उसे यादों के झरोखों में क्यों जगह देना? उसे क्यों याद करना? उसे तो भूल जाना ही बेहतर है. 
जो यादें आपको ज़िन्दगी जीने की एक नई ताज़गी भरी शुरुआत दें, वही यादों का एक सही गुलदस्ता है. यादें ऐसी ही समेट कर रखना चाहिये कि जब भी वे याद आएँ तो ज़िन्दगी रौशन हो जाए ,जगमग हो जाए.

चुन-चुन समेटे हैं, ये कुछ बिखरे हुए अल्फ़ाज़,

महकते हैं हँस कर कभी,

उंगली थामे ले जाते हैं कभी वक़्त के उस पार.

साँस लेते हैं सीने में कभी,

क़दमों को देते हैं कभी सुस्त कभी तेज़ चाल.

ख़्वाबों में बोलते हैं मुझसे,

ख़यालों में करते हैं कुछ खट्टी कुछ मीठी बात.

ये कुछ बिखरे हुए अल्फ़ाज़,

सोचते हैं कभी. कभी ये मुझको ख़ुद समझाते.

रौशन जहाँ से ये ही मिलवाते,

पूछते हैं ये कभी. कभी ख़ुद मुझको बतलाते.

ख़ुशबू की तरह ये हर-सू आ जाते,

गुनगुना कर ये दूर हर ग़म मुझसे हटा जाते.

लहरों की तरह कभी आते कभी जाते,

यादों की वादी से करके आते ये मुझ तक परवाज़.

सोच-सोच कभी दिल ये होता हैरान,

थोड़े थे अभी ये , अभी इतने कैसे ये बढ़ते जाते.

ये कुछ बिखरे हुए अल्फ़ाज़,

ख़ूबसूरत गुलदस्ता बन साथ निभाते,सही राह दिखाते.



एक बात और , ना तो किसी से ऐसे अल्फ़ाज़ कहना चाहिये, और ना ऐसे अल्फ़ाज़ सुनना चाहिये, जो ज़िन्दगी की खुशियाँ और सुकून छीन लें.आपकी बातें और आपकी यादें दोनों ऐसी होना चाहिए, कि जब कभी ठहरे हुए पानी में यादों के कंकर गिरने से आपके ख़यालों, जज़्बातों की लहरों में हलचल हो तो एक ऐसी तरंग उठे जो ज़िन्दगी के तारों को हर बार इस तरह छेड़ जाए कि कई लम्हों तक आपकी मुस्कुराहट आपको गुलज़ार करती रहे.