ज़माने में हर इन्सान
की ख़्वाहिशात अलग अलग होती है. उनकी मंज़िलें भी मुख्तलिफ़होती हैं. उनके उस मंज़िल
तक पहुँचने के रास्ते भी जुदा-जुदा ही होते हैं. कोई भी किसी दूसरे के नक्श-ऐ क़दम
पर चल कर अपना मुक़ाम नहीं पा सकता.हाँ किसी से कुछ सीख ज़रूर ले सकता है,और अपने
हिसाब से रास्ता तय कर सकता है. किसी एक ही चीज़ को देखने और समझने के अंदाज़ सबके
अपने-अपने होते हैं.अगर सभी एक रास्ता एक मंज़िल वाला सफ़र अपनाये तो क्या होगा? ना
तो दुनिया में कुछ नया होगा, और ना कोई तरक्क़ी होगी जहाँ में.सब, बस एक दूसरे की
नक़ल बन कर रह जाएंगे. सबकी कोई अपनी शख्सियत अपनी हस्ती नहीं होगी, तोये प्यारी सी
रंग-बिरंगी दुनिया कितनी बेनूर और बेरौनक हो कर रह जाएगी? इसका आप तसव्वुर कर के
ही देखेंगे तो इसकी ज़रुरत को ज़रूर सराहेंगे. इसलिए सबको अपनी पहचान बनाने की
अपनी-अपनीतरह से कौशिश कर के,ख़ुद की मंज़िल पाना चाहिए.
रात के दरिया से,
रौशनी सवेरे की
अलग हो कांरवा से, बह चली तन्हा.
सराही जाए कौशिश रात
की,
या पाएगा तारीफ़ सुबह
का रवैया.
यूँ तो है ज़िन्दगी
हसरतों का अँधा कुआँ,
उसमे से लेकिन गुज़री
कोई एक किरन,
महका-महका जाती है दिल-ऐ गुलज़ार.
अँधेरे, उजालों में
तब्दील हों तो बेहतर,
आप, आप ही रहें तो
है बेहतर.
कौशिश-ऐ इंसाँ है
ज़िन्दगी की ज़रुरत,
रात, रात ही रहे तो
है जहाँ में मुसीबत.
दिन भी ज़रूरी और है
रात की भी ज़रुरत,
चांदनी भी हक़ीकत
है,रौशनी भी ज़रुरत.
रूह कहीं खो गई
जिस्मों की इस जहाँ में,
बेईमानी आ गई बंदगी
की दुआ में.
सजदे जबी ने किये
दिल तो झुका नहीं,
माना नहीं जाना
नहीं, तो ख़ुदा पाया नहीं.
वक़्त के दरिया का नूर कभी थमा नहीं,
एक दौर कभी था पहले,
एक अभी यहीं.
आते-जाते सिखा जाते
ये दौर हमें,
सुबहें आएँगी हर
अँधेरी रात के बाद.
कर लो कौशिश हर
इम्तेहाँ के बाद,
इंसाँ वही ख़ुद संभले
औरों को संभाले साथ.
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