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Thursday 25 June 2015

ग़ालिब ढूंढते रहे जगह...

कभी कहीं ख़ुदा मिले

ज़िन्दगी में इन्सान इतनी ख़्वाहिशों और हसरतों में घिर जाता है कि ज़रूरतों और ख़्वाहिशों का एक जाल सा उसके इर्द-गिर्द बन जाता है. वह ना तो उस जाल को पार कर पाता है और ना ही उसका कोई सिरा ही ढूंढ पाता है. फिर उलझनों का एक लम्बा सिलसिला शुरू हो जाता है. ग़लती उसकी ख़ुद की होती है, और वह ख़ुदा से शिक़ायतें करने बैठ जाता है. शिक़ायतों की भी एक लम्बी सी फ़हरीस्त होती है. शिक़ायतनामा लेकर वह तमाम ख़्वाहिशों, ज़रूरतों और उलझनों को दूर करने की दुआ मांगता है. अपनी ख़ुद की कौशिशों की कमी नहीं देखता, ना ही देखना चाहता है, यहाँ तक कि इबादत में भी.खैरात ही में सब कुछ पाना चाहता है ना तो ख़ुदा ने जो कुछ दिया है उसका शुकर अदा करता है कभी ना ख़ुदा के बताये सही रास्ते अख्तियार करता है कभी.

ग़ालिब ढूंडते रहे पीने को जगह जहाँ ख़ुदा ना हो
ढूंढते हैं हम भी दर-ब-दर कभी कहीं ख़ुदा मिले

सबकी अपनी ज़रूरतें अपनी हैं ख़्वाहिशें
चाहा हम भी ख़्वाहिशों से रू-ब-रू मिलें

जाने बिना मान कर क्या ख़ुदा मिला?
मान लेने भर से भी कहाँ ख़ुदा मिला

अपनी इबादत की लौ कर रौशन इस तरह
अपने नक्श-ऐ-क़दम बना कुछ इस तरह
फिर तुझे ख़ुदा ही ख़ुदा मिले जहाँ मिले

मुस्कुराहट को कैसे दरजा मिला शहादत का
हँसी की कब्र पर चढ़े फूल, ख़ुशी मिली कब?
हमें तो जब मिले सारे दर्द के नश्तर मिले

रास्तों को खोजते रहे मंज़िलों को ढूंडते रहे
मंज़िलों ने साथ छोड़ा जहाँ डगर नहीं मिले

कारवाँ बढ़ता रहा आगे रास्ते छूटते रहे पीछे
चाहा तो हमने भी कभी कहीं मंज़िलों से मिलें

ज़मी के पत्थर ने क़िस्मत कैसी-कैसी पाई
मूरत बन मंदिर में लगा ताज में जड़ा कोई
पत्थर कई ठोकरों में हमें दर-ब-दर मिले

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