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Wednesday 1 April 2015

शबनम से कभी समंदर नहीं बनते



जब इन्सान एक ख़ुशनुमा ज़िन्दगी बसर कर रहा होता है ,तब उसके आस-पास उसके सब अपने मौजूद होते हैं.यहाँ तक कि पराये भी अपनापन जता कर अपनों की फ़ेहरिस्त में शामिल होने की कौशिश में लगे रहते हैं. ख़ुद वो भी बढचढ कर सारी ख़ुशियाँ उनके साथ बांटता है, ख़ुश होता है. सारी दुनिया-जहान की बातें भी वह उनके साथ करता है, पर जब कभी वो मुश्किलों में घिर जाता है, उसका ग़मों से पाला पड़ जाता है, वो उदासियों में घिर जाता है, तब अक्सर अकेला ही वो सब कुछ सहता और बर्दाश्त करता है. जब किसी के साथ की सबसे ज़्यादा और सख़्त ज़रुरत होती है, तब ही कोई साथ नहीं होता. सुख के ही सब साथी क्यों होते है? ख़ुद से जूझते हुए वो कई सवाल ख़ुद से करता है . उनके जवाब ढूंडता हैऔर पाता भी है. कई सवालों के जवाब तो वो उन सवालों में ही पा लेता है. कुछ सवाल, सवाल ही बने रह जाते हैं. उनकी ज़िन्दगी सवाल बन कर ही बसर हो जाती है.
कुछ उलझे-उलझे लफ़्ज़ों के
क्यों सही अल्फ़ाज़ नहीं बनते
कुछ सवालों के कभी जवाब नहीं बनते
सुबह का सूरज भी लाल है
ढलते सूरज में भी लाली है
सुबह ज़िन्दगी की उमंगें हैं
शाम का सूरज ज़िन्दगी से ख़ाली है
सुबह सारी सरग़ोशियाँ हैं
शाम में सिर्फ़ खामोशियाँ हैं
डूबते सूरज के क्यों कभी सवाली नहीं बनते
रात के आँचल में हँसता है तारा
सुबह का उसने क्या है बिगाड़ा
क्यों रहम नहीं करता ये सवेरा
सितारों के क्यों कभी दिन नहीं बनते
रात की लाश पर चाँद ने बहाए अश्क
सुबह का सूरज कर लेगा उन्हें जज़्ब
इन आँसुओं को नाम दे दिया शबनम
शबनम से कभी समंदर नहीं बनते
ख्यालों को अल्फाज़ बना डाला
ज़ुबां क़लम की दे दी जज़्बात को
कुछ ख़्वाहिशें छलक कर बिखर जाती हैं
इनकी क़िस्मत में क्यों बंधन नहीं बनते
ख़्वाब कभी आँखों में पलते हैं
खो जाते हैं कभी मिलते
टूटते हैं कभी जुड़ते हैं
लाख जतन कर ले कोई
कुछ ख़्वाब मंज़िल के लिए नहीं बनते
होते तो हैं दोस्त ज़माने में सबके
खुशियों में साथ सभी हँसते
मुश्किलों में एक-एक छंटते
ख़िज़ां के पत्तों की तरह झड़ते
ज़रुरत में अपने क्यों अपने नहीं बनते
ख़ुद को खो कर ख़ुद को क्यों पाते
मुश्किल में क्यों अपनों को नहीं पाते
कुछ सवालों के सवाल ही जवाब बनते

कुछ लोगों में क्यों जज़्बात नहीं बनते