Ads

Sunday 1 March 2015

शमा ही क्यों जले सहर होने तक


किसी एक इंसान पर सारी ज़िम्मेदारी डालकर दूसरे बेफ़िक्र हो कर जियें. ये हरगिज़ सही नहीं, ग़लत होता है.एक अकेले के लिए वो किसी बोझ से कम नहीं होता. जब ज़िम्मेदारी बाँट ली जाती है तो ज़िन्दगी ज़्यादा सलीक़े से और ज़्यादा तरतीब से गुज़रती है. अकेले-अकेले चलने से ज़िन्दगी की मुश्किलात से गुज़रना दुश्वार हो जाता है. जिस एक पर सारी ज़िम्मेदारी डाल दी जाती है, वह भी उसे निभाने में अक्सर या तो पिछड़ जाता है या नाकाम हो जाता है. मिल-जुल कर हर इम्तेहान आसानी से पार किया जा सकता है. सारा इंतेज़ाम सारा निज़ाम मिल बाँट कर ही आसानी से किया जा सकता है. इसलिए कहते हैं कि एक और एक ग्यारह होते हैं. मिल-जुल कर ताक़त दोहरी हो जाती है. घर में ,ऑफिस में,दोस्तों में या ज़िन्दगी में, हर जगह मिलजुल कर सारी ज़िम्मेदारी आपस में बाँट लेना चाहिए. इस तरह सबकी 
ज़िन्दगी आसान हो जाती है.

शमा तो जलती है फ़ना होने तक

शमा ही क्यों जले सहर होने तक

चलो कभी तो जलती शमा बुझाकर

अब रात से कहें वही जले सहर तक

सरेशाम रौशनी ने साथ छोड़ दिया

अब रात से कहें वही जले सहर तक

ज़िन्दगी को बेवफ़ा तो ना कहो

बावफ़ा ख़ुद  बन देखो एकबार

मौत से कहें वही चले मुक़म्मल सफ़र तक

अब रात से कहें वही जले सहर तक

याद करें ख़ुदा को अब हम

या खो जाएँ ख़ुदा में कहो हम

देखें नज़र भर चाँद को हम

या जाएँ रौशनी तले सूरज तक

अब रात से कहें वही जले सहर होने तक

कभी चाहा वक़्त की शिक़ायत ये

भेज कर ख़ुदा के दरबार तक

वक़्त की रंजिशों को रास्ते से भटका कर

तल्ख़ लम्हात को भेज कर दूर तक

अब रात से कहें वही जले सहर तक

हमें रौशनी में साए नज़र आते हैं

अपने कभी पराए भी नज़र आते हैं

इन्हें भी संग ले चलें, साथ चलें ये जब तक

अब रात से कहें वही जले सहर होने तक

दोस्तों को क्यों कसें हमेशा क़सौटी पर

देखें ख़ुद भी कभी सच्चे दोस्त बन कर

वफ़ा की उम्मीद करें किसी से वफ़ा कर

अब शमा से कहें वही जले सहर तक

No comments:

Post a Comment