बाज़ दफ़ा इन्सान चाह कर भी अपनी मर्ज़ी के मुताबिक ज़िन्दगी का सफ़र तय
नहीं कर पता. कुछ दफ़ा तक़दीर साथ नहीं देती, कुछ दफ़ा वो ख़ुद कौशिश नहीं कर
पाता.लहरों के साथ बहता चला जाता है.चाह कर भी कईं बार लहरों की मुखालफ़त नहीं कर
पाता. कभी-कभी माज़ी की तरफ़ मुख़ातिब हो कर मुस्तक़बिल में पहुँचना चाहता है,जो एक
नामुमकिन सी बात है.ये दोराहे इन्सान को अक्सर सही रास्तों से भटका देते हैं.यह एक
ऐसा वक़्त होता है जब आपकी क़ाबिलियत आपको सही राह चुनने में मदद करती है,और आपको
आपकी सही मंज़िल तक ले जाती है. कई मोड़ ऐसे भी आते हैं ज़िन्दगी में, जब दिल का
प्याला जज़्बातों से ख़ाली हो जाता है. आँखों के ख़्वाब जाने चले जाते हैं कहाँ.
अल्फाज़ थक कर सो जाते हैं.आवाज़ अपनी क़ुव्वत खो देती है. कौशिश और करने का हौसला
नहीं रहता बाक़ी. तब इन्सान को अपनी ताक़त को पहचान कर ख़ुद पर एतमाद करना चाहिए. तब
एक सही रास्ता अपने आप नज़र आ जाता है. सारी सोई हुई और खोई हुई ताक़त और मंज़िल आपके
नज़दीक आ जाती हैं.
यूँ तो जज़्बात,ख़यालात कईं हैं दिल में,
न जाने उन्हें कहने से क्यों डरते हैं.
न जाने उन्हें कहने से क्यों डरते हैं.
अल्फाज़ तो आते हैं क़रीब चलकर सारे,
न जाने खर्च करने से उन्हें क्यों डरते हैं.
चाहते तो बहुत है कुछ कहना मगर,
दुनिया से क्या कहें, ख़ुद से कहने से भी डरते हैं.
लिख डाले हैं वर्क दर वर्क कईं सारे,
उन्हें पढ़ने से जाने क्यों डरते हैं.
सवाल तो ज़माने के सारे सुनते हैं,
जवाब उनके देने से जाने क्यों डरते हैं.
तलाश इस धूप में छांव की सदा रहती है,
पर साये में जाने से जाने क्यों डरते हैं.
नाइंसाफ़ी नाक़ाबिले बर्दाश्त है लेकिन,
इन्साफ़ मांगने से जाने क्यों डरते हैं.
दोस्त बन-बन निभाई है दुश्मनी जिन्होंने,
आईना उन्हें दिखने से जाने क्यों डरते हैं.
तल्ख़ भी ग़लत भी ज़माने की कईं ख़ताएँ,
ख़तावार की ख़ता बतानें से जाने क्यों डरते हैं.
शिक़ायतें भी हैं ज़माने भर की रब से,
फिरभी शिक़ायत करने से जाने क्यों डरते हैं.
रौशनी का दरिया बहते देखा है हमने,
उसमे उतरते हुए जाने क्यों डरते हैं.
उम्र गुज़रती है ख़ुद के इतने क़रीब से,
उसको छूने से उफ़! जानेक्यों डरते हैं.
चाँद लम्हात का सफ़र है ज़िन्दगी,
सफ़र करते हुए जाने क्यों डरते हैं.
न जाने खर्च करने से उन्हें क्यों डरते हैं.
चाहते तो बहुत है कुछ कहना मगर,
दुनिया से क्या कहें, ख़ुद से कहने से भी डरते हैं.
लिख डाले हैं वर्क दर वर्क कईं सारे,
उन्हें पढ़ने से जाने क्यों डरते हैं.
सवाल तो ज़माने के सारे सुनते हैं,
जवाब उनके देने से जाने क्यों डरते हैं.
तलाश इस धूप में छांव की सदा रहती है,
पर साये में जाने से जाने क्यों डरते हैं.
नाइंसाफ़ी नाक़ाबिले बर्दाश्त है लेकिन,
इन्साफ़ मांगने से जाने क्यों डरते हैं.
दोस्त बन-बन निभाई है दुश्मनी जिन्होंने,
आईना उन्हें दिखने से जाने क्यों डरते हैं.
तल्ख़ भी ग़लत भी ज़माने की कईं ख़ताएँ,
ख़तावार की ख़ता बतानें से जाने क्यों डरते हैं.
शिक़ायतें भी हैं ज़माने भर की रब से,
फिरभी शिक़ायत करने से जाने क्यों डरते हैं.
रौशनी का दरिया बहते देखा है हमने,
उसमे उतरते हुए जाने क्यों डरते हैं.
उम्र गुज़रती है ख़ुद के इतने क़रीब से,
उसको छूने से उफ़! जानेक्यों डरते हैं.
चाँद लम्हात का सफ़र है ज़िन्दगी,
सफ़र करते हुए जाने क्यों डरते हैं.
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