क्या होता हैं लिखने का अंदाज़ मुझे नहीं पता . लिख कर कोई बात कितनी अमिट हो जाती है ये भी नहीं जाना. सारे दिन का लेखा जोखा उतार कर रख देने की भी तमन्ना भी नहीं रही कभी. पर कुछ ख़ासियत दिन की, कुछ खोई पाई सांसों का हिसाब गिनेचुने अल्फाज़ मैं संभाल कर रख देना अच्छा लगता है. जब ज़रुरत पड़े तब लिया जा सके. तारीखों में बंधना किसी बात को अच्छा नहीं लगता . क्योंकि वक़्त अपने आपको दोहराता रहता है. कभी मिले और कहे अरे तुमने मुझे उस साल ,दिन, तारीख या उस पल मै क्यों बांधकर रख दिया ? मैं तो आज भी इस बात मै इस पल मै भी मौजूद हूँ. तब हम क्या कहेंगे ?
कहते
हैं शायर की बख्शिश नहीं होगी,
जज़्बात अगर ख़ुद को न बताए अपने
ज़िन्दगी बसर बा-सुकुन कैसे होगी.
खिज़ा
हो या बहार आए जाए
मौसम
छुपेगा नहीँ,लाख छुपाएँ
ख़ुद
को बयाँ नहीँ करेगी रुत
तो दुनिया
को ख़बर कैसे होगी
आफ़ताब अपने उरूज़ पर होगा,
तभी तो दुनिया में रौशनी होगी.
चिराग़
जब तक न जलेगा ,
राहगीर
को स्याह रातों में ,
सही-सही
राह कैसे मिलेगी.
शायर
की बख्शिश नहीं होगी
ना
हो तो ना सही लेकिन,
अशार कहने से ज़िन्दगी
सुकून भरी बसर होगी
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