इन्सान की ख्वाहिशें और हसरतें साथ-साथ उसके आहिस्ता-आहिस्ता चलती
रहती हैं. ख्वाबों ख़यालों में बस जाती हैं, और उन्हें हसीन बनती हैं. पर कई ख्वाहिशों
की ज़िन्दगी उनके अधूरे रहने में ही ख़त्म हो जाती है.कभी वक़्त उन्हें गुम कर देता
है,कभी ख्वाहिश बन कर ये, ख़ुद यादों में दफ़न हो जाती हैं.जब वक़्त के पन्ने
पलटते-पलटते राख से चिंगारी की तरह ये कभी नज़र आ जाती हैं, तब इनका वजूद इन्सान को
सराबोर कर देता है, अपने रंगों में. इनका जादू सर चढ़ कर बोलता है. अपने सयानेपन
में जिन्हें आप और हम छलावा समझ कर गवां देते हैं, ख्वाबों ,ख़यालों में, उसे ख़ुलूस
के साथ अपनाते हैं. आज उनसे इतने वक्फे के बाद मिलकर एक कसक के साथ अपने आप को
बेबस महसूस करते हैं.काश! तब यूँ ना किया होता. काश ! कम से कम एक कौशिश की होती ,
काश ! एक कदम तो इन तक बढाया होता. ख़ूब सारे काश! होते हैं,पर नतीजा कुछ नज़र नहीं आता. तो
क्या हमारा सयाना होना ग़लती है? या हमारी ख्वाहिशों की चाहत कमज़ोर रही है .या
कौशिश मुक़म्मल नहीं रही हमारी?
वर्क पर छपते हैं लफ्ज़ बार-बार.
ज़हन पर नक्श होती है बात एक बार.
ज़िन्दगी के मयखाने में ज़ज्बात की एक बूँद,
जगाती है कोई ख्वाहिश दिल के प्याले में.
सवांर लो उसे तमन्ना के उजाले में.
वक़्त की आज़माइश में हो ना जाये दफ़न,
जब-जब छलकेगी मचलकर ख्वाहिशात,
मंजिल पर भी होंगे सरहद के निशानात.
लम्हा-लम्हा गुज़रे या बिखरे क़तरा-क़तरा,
ये ज़िन्दगी है इसे जिया जाता है एक बार.
वक़्त अभी है जो थाम लो इसे,
ये रुकता नहीं किसी के लिए.
चला गया वो पलटता नहीं किसी के लिए.
कहते हैं जहाँ वाले दोहराता है ख़ुद को,
पर वो वक़्त सभी को मिलता नहीं.
मिलता है कभी दोस्त बन कर ये,
रिश्तों की जंज़ीर में बांधो इसे नहीं,
रूकती हैं सांसें पर ये रुकता नहीं.
खुशियों के बिखेर लो तुम मोती,
रोये जाओ या तुम ज़ार-ज़ार.
धागा छूट गया तो छूट गया,
कटी पतंग तो उड़ेगी आसमां के
पार.
ख्वाहिश माज़ी में हो गई गर शुमार,
मंजिल का मुस्तकबिल होगा ज़ार-ज़ार.
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