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Friday 20 November 2015

afsana zindgi ka


हमेशा से ही किसी मिसाल को क़ायम करना  किरदार और शख़्सियत को क़ामयाब और मुकम्मल बनाने का एक ताक़तवर ज़रिया माना जाता रहा है. कभी पिछली नसल के बहादुर लोगों को, कभी ज़हीन लोगों को, कभी तरक्की पसंद लोगों को. याने हर मौज़ू में आगे बड़ने, आगे रहने वालों को अपना मॉडल बना कर तरक्की की राह चुनने की कौशिश इंसान करता आ रहा है.अच्छी बात है ये. लेकिन कई बार ऐसा भी हो जाता है, कि किसी और की ख़ासियत अपनाते-अपनाते हम अपना ख़ुद का वजूद खो देते हैं. जो कुदरती ख़ासियत ख़ुदा ने दे कर हमें नवाज़ा है ,उसे ही हम कहीं खो देते हैं. किसी और का सिर्फ़ अक्स बन कर रह जाते हैं. हम जान ही नहीं पाते कभी कि हम क्या हैं? हमारे अरमान क्या हैं? हमारी सोच क्या है और हम चाहते क्या हैं? जब तक इस हक़ीकत से हम रु-ब-रु होते हैं तब तक काफ़ी देर हो चुकी होती है. पर ये क्या कम है, कि हम अपने आप को जान लेते हैं. पहचान लेते हैं,और चूँकि अपनी अब तक की जिंदगी की कहानी आपने ख़ुद लिखी है. उसके किरदार को आप ख़ुद जी रहे हैं, तब अपने आपको जैसा आप हैंजैसा आप चाहते हैं. वैसा ही लिख कर बना सकते हैं. ये कोई मुश्किल काम नहीं.

राज़-ऐ-ज़िन्दगी में सदा बंद
एक किताब जो रही सदा बंद
वर्क दर वर्क खोला जो आज
लगे हर्फ़ कभी अंजाने,
कुछ लफ़्ज़ पहचाने-जाने
ख़ुद को थोड़ा और जाना
नया सा कुछ खोया पाया

यूँ भी कभी होता है
पलपल का हिसाब कौन देता है
यूँ पलटते वर्क देने लगे गवाही
एक बंद थी अंधेरों में गली
नज़र ना वो आई
मसरूफ़ रहे या थी बेपरवाही
कई मोड़ आ कर गुज़र गए
गुज़रे मंज़र वो थे गली के पार
ना जाना क्यों हुए ना उनसे दो-चार
ख़ता ख़ुद की या रास्तों की भरमार

आज मुड़ के जो देखा 
जो गुज़रा ज़माना था
ना थी सदा कोई ना आई
पलटते वर्कों ने दी गवाही
खुली किताब फिर बंद पाई
है ख़ता तो ख़ता ही सही
जीने का मेरे अंदाज़ यही
खोना है ये, ये ही पाना है
मेरी ज़िन्दगी का यही अफ़साना है

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