ज़िन्दगी अपने मक़ामात
कभी-कभी ख़ुद तय करती है. इन्सान यूँ बेबस होकर सब कुछ देखता ही रह जाता है, कि ये
तो ना थी चाह कभी उसकी, ऐसा तो सोचा ना था अंजाम उसने. कोशिशें उसकी अपनी मंज़िल की
चाह की सारी दम तौड़ती नज़र आती हैं. नाक़ामी के इस आलम में उसे हर तरफ़ अँधेरा ही
अँधेरा दिखाई देता है. ऐसे हालात में उसके कई साथी भी दामन झटक कर उसे छोड़ जाते
हैं. ये दुनिया की रिवायत है इसे नज़र-अंदाज़ करना चाहिए. इन्सान को ख़ुद पर से कभी
ऐतमाद को उठने नहीं देना चाहिए. जैसे हर रात के बाद सवेरा है, वीराने के बाद बसेरा
है,ऐसे ही हर नाक़ामी के बाद क़ामयाबी खड़ी होती है.मायूसी के आलम में ख़ूबसूरत मौक़ा
खोने की ग़लती नहीं करना चाहिए
दर-ओ-दीवार भी ग़ममें रोते हैं
दिल और आँख जब नम
होते हैं
पहरों, पहरा दिया लम्हों ने लेकिन
जज़्बात के साथ दिन-रात भी रोते हैं
पहरों, पहरा दिया लम्हों ने लेकिन
जज़्बात के साथ दिन-रात भी रोते हैं
क़तरा-क़तरा पिघलता है
आसमा
बादल भी
बरस-बरस रोते हैं
लाख जातन करो इन्हें
मनाने के
इल्तजा करो न छोड़ कर जाने की
इल्तजा करो न छोड़ कर जाने की
जाने वाले
अश्क़ों, तुम क्या जानो
ज़ार-ज़ार ये दिल भी
रोते हैं
छोड़ आँखों का साथ
दूर क्यों जाते हैं
कहते हैं आंसू ग़म
में साथ निभाते है
यूँ छोड़ जाना,ये
कैसा साथ निभाना है
जाने वाले
लम्हा-लम्हा हम भी रोते हैं
आँखों की सदा,ख़ामौशियों
की आवाज़
सन्नाटों के शोर में
गुम सारे हज़रात
हालात समझने लगते
हैं तो रोते हैं
बहते अश्क़ आते सभी को नज़र
जज़्ब होते जो आँखों
ही आँखों में
जान न पाता,कोई
पहचान न पाता
ख़ून के आंसू जब-जब
रोते हैं
शब् मुस्कुराती या सिसकती सुबह
अंधेरों से मिल ये
उजाले रोते हैं
मरती है इंसानियत गर
जहाँ में
साथ उसके ज़िन्दगी भी
मरती है
घायल वक़्त ऐसा इक
पंछी
बेबसी पर लम्हे-लम्हे रोते हैं